सावन का महीना है और अधिक मास यानी पुरुषोत्तम मास भी है। इसका जो भी पारंपरिक अर्थ हो पर इसका वास्तविक अर्थ- मैदानी अर्थ – ज़मीनी अर्थ तो यह है कि जो पुरुष उत्तम व्यवहार करे वह पुरुषोत्तम। उदाहरण के तौर पर हर परिस्थिति में आदर्श जीवन जीने वाले राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए । स्त्री तो सदा उत्तम आचरण करती ही है – अपवाद होंगे पर पुरुषों की तुलना में तो वे ज्यादा अच्छा व्यवहार करती रहीं है। मसलन कब किसी स्त्री ने बलात्कार किया ? इसलिए परंपरा भी यही मानती रही कि स्त्रियोत्तम मास की ज़रूरत नहीं है। पुरुषोत्तम मास की जरूरत है। तो संवत् के दिनों को बैलेंस करने के तर्क से ही सही, पर एक अधिक मास की संकल्पना की गई और उसे पुरुषोत्तम मास कहा गया।मतलब जो पुरुषों में उत्तम जो नैतिक आचरण करे वह पुरुषोत्तम..
सभी कलाओं से युक्त विष्णु पुरुषोत्तम हैं। राम अवतार में भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, वह पुरषों में उत्तम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। ऐसे आदर्श हैं हमारे । उन तक पहुँचना किसी के लिए संभव नहीं। लेकिन उन्हें प्रतिमा की तरह पूजन के लिए यह मास नहीं आया। यह उनकी दिशा में उनके पथ पर चलने के लिए आया है। यह सावन का महीना इस वर्ष तो और विशेष है क्योंकि यह देवशयनी एकादशी के बाद आया है। जब जग के पालनहार भगवान विष्णु शयन के लिए चले गये हैं और पृथ्वी की सत्ता भगवान शिव को सौंप गये हैं। जो एक तरह का प्रभार देना है । अहा कितनी आनंदित करने वाली और जीवन का सार सीखने वाली बात है जरा सोंचिए की शिव तो संहारक विभाग के है और प्रभार पालनहार का मिला है तालमेल बैठाना कितना कठिन है और तब जब प्रकति सृजन के मूढ में हो अब शिव के लिए सबसे बड़ी चुनौती देखिए की उस विभाग का प्रभार उनके पास है जो उन का नेचर ही नहीं अब शिव को उस भूमिका का निर्वाह करना है जो शिव की प्रकृति के अनुसार नहीं है। शिव तो शिव है तपस्वी समाधि में लीन दुनिया के पचड़ों में फँसते ही नहीं हैं। योगी हैं, आदियोगी हैं, महायोगी हैं। लेकिन अब उन्हें विष्णुजी का कार्यभार सँभालना है। और वे कितनी खूबसूरती से इसे सँभालते हैं। चारो तरफ हरियाली पेड़ों और पौधों का सृजन प्रकति में बदलाव ऐसा लगता है कि जैसे पूरी प्रकृति में जान भर गई है। यानी जो शिव संहारकर्ता हैं वह विष्णु की तरह ही सृष्टि के पोषण का कार्य करने लगते हैं। हरी भरी वसुंधरा सम्पन्न, समृद्ध, सुशोभित और सुपोषित दिखाई देने लगती है।जबकि शिव तो स्वभाव से कामरिपु है, उन्होंने तो कामदेव को भस्म कर दिया था । लेकिन इन चार महीने में बिरहिनियों की हालत क्या होती है, यह तो कवियों ने खूब बताया है। राम के लिए भी तुलसीदास जी ने इस माह में यही कहते है: घन घमंड नभ गरजत घोरा / प्रियाहीन डरपत मन मोरा । अत: पालनहार के प्रभार में रहते हुए शिव अपने दायित्वों को पूरी निष्ठा से निभाते हैं, अपने स्वभाव से भी परे जाकर ।
कर्तव्य पालन की ईमानदारी उस अधिक मास में ही नहीं, इस देवशयनी से लेकर देवोत्थान की अवधि में भी है। विष्णु राजा बलि के दरवाजे पर खड़े होकर द्वारपाल की ड्यूटी निभाते हैं और इधर शिव भगवान विष्णु का कार्यभार सँभालते हैं। क्या यह कर्तव्य- परायणता हमें ऐसी अवधि में कभी सूझी ? ….