वामपंथ के प्रभाव में हमें हमारे इतिहास के जिन अद्भुत नायकों की जानकारियों से वंचित रखा गया उनमे
एक बहुत बड़ा नाम धार के राजा भोज का भी है. राजा भोज पराक्रमी थे, विद्वान थे, कलाप्रेमी थे, कलापारखी थे, दृष्टा थे, सुशासक थे
और उन्होंने अपने दीर्घ कार्यकाल में समाज के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व और कालजयी योगदान दिया.
इसी क्रम में वास्तुकला,वास्तुशास्त्र और वास्तु निर्माण में भी राजा भोज का असाधारण योगदान रहा है. उन्होंने स्वयं ‘समरांगन सूत्रधार’ नामक वृहद् ग्रन्थ कि रचना की जिसमे निर्माण शास्त्र, मूर्ति कला आदि की तकनिक के सम्बन्ध में इतनी विस्तृत, सटीक और उपयोगी जानकारियां दी है कि हम अचंभित रह जाते है. किसी भवन की नीव कैसे भरी जानी चाहिए, भवन के आकार और ऊंचाई का नीव पैर क्या प्रभाव पडेगा, से लेकर छत के अक्कर के अनुपात में स्तम्भ और दीवारों के क्या प्रमाण होना चाहिए तक की विस्तृत जानकारियां इस ग्रन्थ में दी गयी है. साथ ही मूर्तिकला के सम्बन्ध में शरीर के अनुपात क्या होना चाहिए, यथा, कपाल और नाक के बीच क्या अनुपात होना चाहिए और फिर नाक और ओठों के बीच कितना अन्तर होना चाहिए जैसी जानकारियां इस ग्रन्थ में विस्तार से दी हुई है.
जाहिर है, जिस राजा की वास्तुकला और वास्तुशास्त्र इतनी गहरी रूचि हो, उसके द्वारा विशाल निर्माण कार्य भी किये गए थे जो उनके सैकड़ों वर्ग मील में फैले विस्तीर्ण साम्राज्य में अनेक स्थानों पर निर्मित किये गए थे. गत रविवार, ऐसी ही एक अद्भुत वास्तु को देखने का मौका मिला. इंदौर से लगभग 200 किमी दूर मध्यप्रदेश के जनजाति बहुल मनावर जिले के देवरा ग्राम में राजा भोज द्वारा निर्मित एक अत्यंत विशाल
और सुन्दर शिव मन्दिर देखने का अवसर प्राप्त हुआ. अग्रज, मध्य भारत के प्रसिद्द वास्तुविद और परमारकालीन इतिहास के विशेषग्य
वास्तुविद श्री Udayan Natu और बड़े भ्राता श्री Janardan Pendharkar के साथ यह अविस्मरणीय यात्रा संपन्न हुई.
आज देवरा कुछ 40–50 घरों का एक छोटा सा ग्राम है. यहाँ गाँव के मध्य में एक विशाल मंदिर के भग्नावशेष आज भी अपने युग कि गौरवशाली गाथा के प्रमाण के रूप में खड़ा हुआ है. मन्दिर की विशाल नींव करीब 20 फीट ऊँची है. उस पर पीले पत्थरों से प्रथम तल बना हुआ है. गर्भगृह के बाहर का सभा मण्डप करीब 12 फीट की ऊँचाई का है और उस की दीवारों पर अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ उकेरी गयी है. एक
तरह से मन्दिर के इतना ही हिस्सा सुरक्षित रह पाया है. परन्तु इस हिस्से को देख कर मन्दिर अपने समय में कितना भव्य रहा होगा
उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. सम्पूर्ण मन्दिर पत्थरों से बना है. नींव का विस्तीर्ण चबूतरा, उस पर सभामंड़प, द्वार,
गर्भगृह जिसके अन्दर शिवलिंग. परिसर के चारों ओर पत्थरों के ढेर और उन्ही में से कुछ पत्थरों को जमा कर बनायी हुई दीवारनुमा
सीमा.
स्पष्ट है कि राजा भोज के पश्चात् हुए मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा मन्दिर नष्ट कर दिया गया था. मूर्तियां खण्डित कर दी गयी
थी और निश्चित ही शिवलिंग भी नष्ट कर दिया गया था. आज जो शिवलिंग नजर आ रहा है वह भिन्न पत्थर का बना हुआ है. प्रथम
तल के लगभग बारह फीट के मूल निर्माण के ऊपर रखे पत्थर भी बाद के काल में रचे गए हैं. गर्भगृह में शिवलिंग के ऊपर भी खुला
आकाश ही नजर आता है. शिखर ध्वस्त कर दिया गया है. परन्तु तमाम अवशेष देख कर अनुमान लगाया जा सकता हैं कि अपनी
पूर्णता में यह मन्दिर कम से कम 60 से 70 ऊँचा रहा होगा! परिसर में फैले पत्थरों में स्तंभों, शिखर, आमलक आदि के पत्थर सरलता
से पहचाने जा सकते हैं और उनके आकर प्रकार से यह और अधिक मजबूती से स्थापित हो जाता है कि मन्दिर अपने समय में विशाल
और भव्य रहा होगा. द्वार और सभामंड़प का जो छोटा सा अक्षुण्ण हिस्सा आज नजर आ रहा है, वहां जो मुर्तिया आदि नजर आती हैं
वे अत्यंत उन्नत और उच्च कोटि की कला का उदहारण प्रस्तुत करती हैं. संगीत के वाद्य बजाते गन्धर्व, जो कि सुखी और उत्सव प्रिय
जीवन के प्रतीक के रूप में सभी प्राचीन मंदिरों में उकेरे जाते थे उनके स्थूल देह कि त्वचा और पवित्र नदियों के रूप में उकेरी जाने
वाली नारियों के सुगठित देह और उनकी स्निग्ध त्वचा को जिस खूबसूरती के साथ पत्थरों में उकेरा गया हैं वह अद्भुत है.
देवरा ग्राम कभी बहुत बड़ा रहा होगा इसके कोई चिन्ह नहीं मिलते. आज भी यह क्षेत्र जनजाति बहुल क्षेत्र है. 1000 वर्ष पूर्व जब यह मन्दिर बनाया गया होगा तब भी यह जनजाति बहुल ही रहा होगा. ऐसे क्षेत्र में इतना विशाल शिव मन्दिर इस तथ्य को मजबूती से प्रतिपादित करता
है कि जनजाति समाज भी सनातनी हिन्दू समाज का ही एक हिस्सा रहा है और उनके पूजनीय भी वही देवी देवता थे जो नगरीय हिन्दू
समाज के थे. इधर कुछ दशकों से जनजातियों के बीच यह विष घोला जा रहा है कि वे यहाँ के मूल निवासी है और आर्य बहार से आये
थे. इस आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश की जाती है जनजातीय समाज सनातनी हिन्दू नहीँ है. देवरा जैसे स्थान, वहां की
जनजातीय बहुलता, वहां एक विशाल प्राचीन मन्दिर का निर्माण और आज भी उस मन्दिर को साफ़ सुथरा रख वहां नित्य पूजा आदि
करने वाला वनवासी समाज यह सब देख कर यह सत्य सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि बांटने के तमाम प्रयासों के बावजूद आज भी
जनजातीय समाज स्वयं को सनातन के हिस्से के रूप में ही देखता है.
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
21/01/2025