11-13 नवंबर 1995 मुंबई के महालक्ष्मी रेस कोर्स मैदान में भाजपा के महाधिवेशन में लालकृष्ण आडवाणी की धूम थी. अगले ही साल 1996 में लोकसभा चुनाव होना था. माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री के लिए पार्टी का चेहरा लालकृष्ण आडवाणी ही होंगे. दूसरी तरफ अध्यक्षीय भाषण में लालकृष्ण आडवाणी ने यह बोलकर चौंकाया, “हम अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ेंगे और वे प्रधानमंत्री के लिए हमारे प्रत्याशी होंगे. अनेक वर्षों से पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं आम लोग भी नारा लगाते रहे हैं – अबकी बारी अटल बिहारी. मुझे भरोसा है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा अगली सरकार बनाएगी.”
लालकृष्ण आडवाणी की इस अप्रत्याशित घोषणा से कुछ क्षणों के लिए वहां सन्नाटा छा गया. मंच पर अपनी जगह लालकृष्ण आडवाणी के वापसी के पहले ही माइक्रोफोन पर पहुंचे अटल बिहारी वाजपेयी ने रुंधे गले से अपने चिरपरिचित अंदाज में कुछ पलों का ठहराव लिया और फिर कहा,”भाजपा चुनाव जीतेगी. सरकार बनाएगी. लालकृष्ण आडवाणी प्रधानमंत्री होंगे.” लालकृष्ण आडवाणी ने कहा घोषणा हो चुकी है. प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ही बनेंगे.
अटल बिहारी वाजपेयी ने बाद में लालकृष्ण आडवाणी से कहा,”क्या घोषणा कर दी आपने ! कम से कम मुझसे बात तो करते.” तब क्या आप मानते? कहते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने अटल बिहारी वाजपेयी को निरुत्तर कर दिया था. केएन गोविंदाचार्य ने लालकृष्ण आडवाणी से कहा था कि इतनी बड़ी घोषणा के लिए संघ से तो अनुमति ले लेते. लालकृष्ण आडवाणी का दो टूक जवाब था, “संघ से कहता तो वो कभी सहमति नहीं देता.” बाद में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा, हमें वोटों को बढ़ाना है. उसके लिए हमें अटल बिहारी वाजपेयी की जरूरत है.
लालकृष्ण आडवाणी चाहे होते तो 1996 में ही प्रधानमंत्री बन गए होते. बेशक वह उप प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ही पहुंच पाए लेकिन भाजपा को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने का उन्हें काफी कुछ श्रेय प्राप्त है. उनकी शुरुआती पहचान भले पार्टी के सिद्धांतकार और संगठक की रही हो लेकिन अयोध्या आंदोलन में रामरथ पर सवार होकर उन्होंने पार्टी को अपने परंपरागत शहरी और मध्यवर्ग के आधार से आगे बढ़ाकर दूर गांवों के पिछड़ों और कमजोर तबके के बड़े हिस्से तक पहुंचाया. इस यात्रा ने उनका भी रूपांतरण किया और उनकी जनता के बीच पहुंच बनी. इस दौर में पार्टी में वे अटल बिहारी बाजपेयी की तुलना में अधिक ताकतवर बन चुके थे लेकिन उन्होंने फिर भी खुद की जगह हमेशा अटल बिहारी वाजपेयी को आगे और बेहतर माना.
लालकृष्ण आडवाणी ने हमेशा अटल बिहारी बाजपेयी को अपना नेता माना. अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा, “मुझे किसी एक व्यक्ति का नाम लेना हो जो लगभग पचास वर्ष तक पार्टी में मेरे सहयोगी रहे और जिनका नेतृत्व निस्संकोच भाव से स्वीकार किया तो वह नाम अटल बिहारी बाजपेयी का होगा.” प्रधानमंत्री पद के लिए अटल बिहारी बाजपेयी के नाम की घोषणा के लिए पार्टी और संघ के लोगों ने झिड़का भी था. जनादेश मिलने पर सरकार चलाने के लिए उन्हें अटल बिहारी बाजपेयी से बेहतर बताया था. लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने इससे असहमति व्यक्त की थी.
बहरहाल, देश की राजनीति में सक्रिय किसी राजनेता ने शायद ही लालकृष्ण आडवाणी जैसी साहसिक स्वीकारोक्ति की हो, “मैंने पूर्ण ईमानदारी और दृढ़ विश्वास के साथ जवाब दिया कि मैं उनके विचार से सहमत नहीं हूं. जनता की नजर में मैं जननायक की तुलना में विचारक अधिक हूं. यह सही है कि अयोध्या आंदोलन ने मेरी छवि बदली है. लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी हमारे नेता हैं. नायक हैं. जनता में उनका ऊंचा स्थान है और नेता के रूप में जनसाधारण उन्हें अधिक स्वीकार करता है. उनके व्यक्तित्व में इतना प्रभाव और आकर्षण है कि उन्होंने भाजपा के पारंपरिक वैचारिक आधार वर्ग की सीमाओं को पार किया है. उन्हें न केवल भाजपा की सहयोगी पार्टियां स्वीकार करती हैं , बल्कि इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि भारत की जनता उन्हें स्वीकार करती है.” और यह सब लिखते आडवाणी ने जोड़ा, ‘मैंने कोई त्याग नहीं किया. यह पार्टी और राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में लिया गया निर्णय था.”
सत्येंद्र प्रताप सिंह
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक