भारत में संतों और संन्यासियों की अनेक परंपराएँ हैं, जिनमें नागा संन्यासी (नागा साधु) एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। ये संत अद्वैत वेदांत के अनुयायी होते हैं और अपने कठोर तप, योग साधना, तथा शस्त्र विद्या के लिए प्रसिद्ध हैं। नागा संन्यासियों का रहस्यमय जीवन, उनकी कठोर साधना और धार्मिक अनुशासन ने समाज में उनके प्रति विशेष जिज्ञासा और सम्मान उत्पन्न किया है।
नागा संन्यासियों की उत्पत्ति और परंपरा
नागा संतों की परंपरा का मूल आदि शंकराचार्य से जुड़ा हुआ माना जाता है। उन्होंने हिंदू धर्म की रक्षा और वेदांत दर्शन के प्रचार के लिए दस संन्यासी संप्रदायों की स्थापना की थी, जिन्हें ‘दशनामी संप्रदाय’ कहा जाता है। इन संप्रदायों में से एक “नागा” शाखा विशेष रूप से क्षत्रिय प्रवृत्ति की थी, जिनका कार्य धर्म की रक्षा करना था। ये संत न केवल आध्यात्मिक ज्ञान में पारंगत होते हैं बल्कि युद्धकला और आत्मरक्षा में भी निपुण होते हैं।
नागा संन्यासियों का रहन-सहन और तपस्या
नागा संन्यासी वस्त्र-त्यागी होते हैं और अधिकांश समय नग्न अवस्था में रहते हैं, जिससे उन्हें ‘नागा’ कहा जाता है। वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, जो उनके वैराग्य और मृत्यु के प्रति समर्पण को दर्शाता है। वे कठिन तपस्या, योग और ध्यान में लीन रहते हैं और हिमालय, जंगलों तथा श्मशानों में साधना करते हैं।
इनकी दिनचर्या में ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ध्यान, योग और गुरु सेवा का प्रमुख स्थान होता है। वे मांस, मद्य और अन्य सांसारिक सुखों से दूर रहते हैं। उनका जीवन त्याग और कठोर तपस्या का प्रतीक होता है।
नागा संतों का धर्म रहस्य
1. अद्वैत वेदांत का पालन – नागा संन्यासी अद्वैत वेदांत के अनुयायी होते हैं, जो आत्मा और परमात्मा की एकता पर बल देता है। वे संसार को माया मानते हैं और आत्मज्ञान को ही मोक्ष का साधन मानते हैं।
2. शिव साधना – नागा संन्यासी भगवान शिव के उपासक होते हैं और उन्हें आदिगुरु मानते हैं। वे शिव की भाँति भस्म रमाते हैं और वैराग्य धारण करते हैं।
3. युद्धकला और धर्म रक्षा – इतिहास में नागा संन्यासी कई बार हिंदू धर्म की रक्षा के लिए लड़े हैं। मुगलों और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में भी उनका योगदान रहा है।
4. कुंभ मेले में विशेष स्थान – नागा संत कुंभ मेले के दौरान सबसे पहले पवित्र स्नान करने का अधिकार रखते हैं, जिसे ‘शाही स्नान’ कहा जाता है। यह उनकी तपस्या और धर्म में ऊँचे स्थान का प्रमाण है।
5. गुरु-शिष्य परंपरा – नागा संन्यासियों में दीक्षा अत्यंत कठिन होती है। शिष्य को कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है और उसकी परीक्षा ली जाती है। सफल होने पर ही उसे नागा संन्यासी बनाया जाता है।
निष्कर्ष
नागा संतों का जीवन रहस्यमय होते हुए भी अत्यंत अनुशासित और धार्मिक होता है। वे आत्मसंयम, तपस्या और वैराग्य के प्रतीक हैं। उनका मुख्य उद्देश्य आत्मज्ञान प्राप्त करना और धर्म की रक्षा करना है। नागा संन्यासियों की यह परंपरा भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की महान विरासत का हिस्सा है, जो आज भी कुंभ मेलों और विभिन्न धार्मिक आयोजनों में जीवंत रूप में दिखाई देती है।