बाजीराव पेशवा का गौरवशाली इतिहास
बाजीराव भोजन की अद्भुत कला
28 अप्रैल, बाजीराव (प्रथम) की पुण्यतिथि! 1740 में 28 अप्रैल के ही दिन, भारत मां के इस विलक्षण सपूत का मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में मां नर्मदा के तट स्थित एक छोटे से गांव रावेरखेड़ी में निधन हुआ था। उम्र थी मात्र 40 वर्ष।
बाजीराव 20 वर्ष की उम्र में ही मराठा साम्राज्य के पेशवा नियुक्त हुए थे। पेशवा यानी प्रधानमंत्री! इतने बड़े और महत्वपूर्ण पद की दृष्टि से उनकी उम्र कच्ची ही थी। ऊपर से परिस्थितियां भी असामान्य थी। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल कमजोर हो चुके थे। लगातार 50 वर्ष युद्ध लड़ते लड़ते मराठे, पराजित तो नहीं हुए थे परन्तु उनकी सीमाएं सिमट चुकी थी और पूरा समाज निराशा की गर्त में था। उधर पुर्तगाली और अन्य यूरोपीय शक्तियां पैर पसार रही थीं। कुल मिला कर अत्यन्त विषम परिस्थितियां थी। ऐसे में युवा बाजीराव के हाथ मराठा सत्ता के सूत्र सौंपे गए थे। अगले 20 वर्षों में इस असाधारण रणनीतिज्ञ और अजेय योद्धा ने 42 युद्ध लड़े। यानी औसतन 2 लड़ाइयां प्रतिवर्ष! इस दौरान हजारों मील घोड़े की पीठ पर बैठ कर तय किए और अपनी तेज गति और अपरंपरागत चालों से सभी युद्ध जीते।
उनकी महानता, उनके अविश्वसनीय रणकौशल और दूरदृष्टी आदि की तो चर्चा होती रहती है। परन्तु कुछ छोटी छोटी घटनाओं में भी बड़े रहस्य छुपे रहते हैं। कल उनकी पुण्यतिथि पर रावेरखेड़ी में उनकी समाधि स्थल पर हुए कार्यक्रम में एक नया शब्द सुनने को मिला… बाजीराव भोजन! पता चला एक हथेली पर रोटी रख कर, उसी पर सुखी सब्जी, गुड का डला और हरी मिर्च रख कर दूसरे हाथ से खाने को बाजीराव भोजन कहते हैं। कार्यक्रम के बाद सभी लोगों के लिए इसी बाजीराव भोजन की व्यवस्था की गई थी। हमने भी वैसे ही भोजन ग्रहण किया। उस पुण्य भूमि पर यह दिव्य भोजन करते समय अनुभूति हुई कि उस व्यक्ति ने क्या जीवन जिया होगा? जो व्यक्ति वर्ष में कम से कम दो लड़ाइयां लड़ता रहा हो, निश्चित ही उनका अधिकांश जीवन युद्ध अभियानों में ही व्यतीत हुए। युद्ध अभियान, विशेष कर मराठों के युद्ध अभियान, सुख-सुविधा और विलासिता से कोसो से दूर रहते थे। खुले आसमान के नीचे जमीन पर सोना पड़ता था, दिन-रात लगातार घोड़े की पीठ पर आगे बढ़ते रहना पड़ता था। हाथ में भारी तलवार, ढाल, तीर-कमान, भाला आदि और शरीर पर भारी कवच आदि पहन कर घुड़सवारी करना कष्टप्रद ही रहता था।
इस सब के बीच, भोजन करना होता था। बाजीराव के सेना ने भोजन की जो शैली विकसित की उसे ही आज बाजीराव भोजन कहा जाता है। निश्चित ही यह भोजन आज के किसी भी फास्ट फूड से भी कम समय में खाया जा सकता था। इसके लिए बर्तन भी कम से कम लगते हैं। भोजन पकाने और परोसने में भी अत्यन्त कम समय और कम काम करने वालों की आवश्यकता होती है।
इतिहास में अनेक राजा – सेनापति हुए हैं। उनमें से कई सुयोग्य थे, जिन्होंने अपनी प्रजा के लिए लाभकारी योजनाएं क्रियान्वित की। परन्तु इतिहास में अमर वही राजा हो पाता है, जो भूगोल को बदल पाता है! यद्यपि, भूगोल बदलने जैसी सफलता प्राप्त करने के पूर्व लम्बी कठोर तपस्या करनी पड़ती है। बाजीराव ने पूरे जीवन में यह अखण्ड तपस्या की। महलों में रहकर विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत करने की जगह उन्होंने जंगल जंगल घूम कर मराठा राज्य के विस्तार की नींव डालने को प्राथमिकता दी। फिर चाहे थाली की जगह हथेली पर रोटी रख कर ही भोजन ग्रहण करना पड़े!
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर