आपातकाल का दंश
हम सभी जानते हैं कि 25 जून 1975 को स्वंतत्र भारत के इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय देश पर लाद दिया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने देश को आपातकाल की आग में धकेल दिया था। दो वर्षों के बाद इस घटना को पचास वर्ष पूरे हो चुके होंगे। जनता की स्मरण शक्ति को कमजोर माना जाता है और फिर इतने लम्बे समय में स्मृतियां धूमिल हो ही जाती है। नईं पुश्तों को तो आपातकाल बस एक नाम ही पता है। ऐसी स्थिति में किन परिस्थितियों में आपातकाल लागू किया गया था और आपात काल में जनता पर क्या प्रभाव पड़े इन विषयों पर पुनरावलोकन करना गलत नहीं होगा।
मई 1971 में इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने आम चुनाव में जबरदस्त सफलता हासिल करते हुए लोकसभा के 350 संसदीय क्षेत्रों में शानदार विजय हासिल की और प्रचण्ड बहुमत से सरकार गठित की। इस जीत का सेहरा इन्दिरा जी के सर बंधा जिन्होंने “गरीबी हटाओ” का नारा बुलंद करते हुए लगभग अकेले दम पर यह बहुमत हासिल किया था। इसके तुरन्त बाद कईं राज्यों में भी चुनाव आयोजित हुए और एक समय सिर्फ तमिलनाडु को छोड़ पूरे देश के सभी राज्यों में कांग्रेस का शासन था। श्रीमती गांधी लोकप्रियता के चरम पर थी।
1971 के चुनाव में श्रीमती गांधी स्वयं उत्तर प्रदेश के रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ी थीं और अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी राजनारायण से एक लाख से भी अधिक मतों से विजयी हुईं थीं। परन्तु, राजनारायण इस चुनाव के विरुद्ध अदालत में चले गए। उनका दावा था कि प्रधान मंत्री ने इस चुनाव में सरकारी साधनों और तंत्र का दुरुपयोग किया था, जो कि भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता था।
यह मुकदमा मुख्यत: निम्न बिंदुओं पर आधारित था –
प्रधान मंत्री कार्यालय में कार्यरत राजपत्रित अधिकारी श्री यशपाल कपूर ने दिनांक 13 जनवरी 1971 को अपने पद से इस्तीफा दिया और उसके पश्चात वे घोषित रूप से श्रीमती गांधी के चुनाव प्रचार का कार्य देखने लगे। उनका इस्तीफा मंजूर दिनांक 25 जनवरी 1971 को हुआ। इन तेरह दिनों में क्या वे सरकारी अधिकारी थे? यदि हां तो उनका श्रीमती गांधी के प्रचार के लिए काम करना गैर कानूनी था और यह चुनाव में सरकारी तंत्र का दुरुपयोग था।
चुनाव संबंधी नियमों में इन्दिरा गांधी के पूर्व, यह स्पष्ट था कि प्रधानमंत्री की सामान्य सभाओं का आयोजन और उस दौरान उनकी सुरक्षा की देखरेख संबंधित जिला प्रशासन करेगा परन्तु चुनाव प्रचार के दौरान स्थानीय प्रशासन सभा की व्यवस्था नहीं करेगा। इन्दिरा गांधी ने स्वयं नियमावली से चुनाव प्रचार के दौरान की सभाओं सम्बंधी रोक को हटवा दिया। उनकी चुनावी सभाओं की व्यवस्था भी स्थानीय प्रशासन ही करता था और वे प्रचार के लिए वायु सेना के यान का उपयोग करती थी। यह परिवर्तन असंवेधानिक था तथा स्थानीय प्रशासन द्वारा चुनावी सभाओं का आयोजन सरकारी तंत्र का दुरुपयोग था।
सरकारी तंत्र के दुरुपयोग का मामला तभी बनता है, जब प्रधानमंत्री अपने चुनाव के क्षेत्र और उम्मीदवारी की घोषणा करते है। तंत्र का दुरुपयोग माने जाने के लिए उनका अपने आप को उम्मीदवार घोषित करना आवश्यक था। श्रीमती गांधी ने मुकदमे के दौरान शपथ पूर्वक कईं बार दोहराया उनकी उम्मीदवारी को घोषणा उन्होंने 1 फरवरी 1971 को की थी। परन्तु याचिकाकर्ता अदालत में यह सिद्ध करने में सफल रहे कि वे इस सम्बंध में दिसंबर और जनवरी में ही घोषणा कर चुकी थी। और यह कि भारत की प्रधानमंत्री होने के बावजूद वे शपथ पर झूठ बोल रहीं थी।
याचिकाकर्ता श्री राजनरायण की और से पैरवी करते हुए प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री शान्ति भूषण ने उपरोक्त सभी बिन्दुओं को सफलतापूर्वक सिद्ध कर दिया। न्यायमूर्ति श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने सुनवाई के पश्चात जो फैसला दिया वह ऐतिहासिक था। उन्होंने श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध ठहराते हुए रद्द कर दिया और साथ ही सरकारी तन्त्र और साधनों का अनुचित उपयोग करने पर उनके चुनाव लडने पर छ: वर्षों के लिए रोक लगा दी। इस फैसले का सीधा अर्थ था कि श्रीमती गांधी तुरन्त अपने पद से त्यागपत्र दे दें। अति महत्वाकांक्षी श्रीमती गांधी के लिए यह एक भीषण झटका था। छः वर्षों तक चुनाव न लड़ पाने का अर्थ उनके राजनीतिक जीवन का अन्त भी हो सकता था।
क्रमश: — भाग – 2
(अगली किश्त में : क्या इन्दिरा ने अदालत के निर्णय को मान्य करते हुए त्यागपत्र दिया?)
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
25/06/2025